शुक्रवार, 13 फ़रवरी 2015

जीवन की बस इतनी व्यथा है....

जीवन की बस इतनी व्यथा है,
जो ना मिला वो एक कथा है।।


साथ रहे मगर रहे अनभिज्ञ,
क्यों ना हमने रिश्तों को मथा है।।


रावण भी, राम भी मिल जायेंगे,
यहाँ हरेक मन में एक कथा  है।।


देखो शबरी भी मिल जाएगी,
जिन खोजों में प्रेम व्यथा है ।।


वह शहर भी हमने रौशन देखा,
जहाँ अंधकार भी एक प्रथा है ।।


कॉपीराईट @दुर्गेश कुमार ''शाद''

गुरुवार, 15 जनवरी 2015

ग़ज़ल - "नातवां अहसास"


फिर मिलन की आस है, तेरे जाने के बाद,
मुझे ए-ज़िन्दगी तलाश है तेरे जाने के बाद।।


मुझे लगा वो ना समझे, उन्हें लगा के मैं,
कुछ नातवां अहसास है तेरे जाने के बाद।।


मिले कभी गर पूछना सबब इसका,
क्यों ज़िन्दगी उदास है तेरे जाने के बाद।।


ज़रख़ाक़ अल्फाज़ हैं, जिन्हें चॉंद पे था टॉंकना,
नज़रबंद अहसास है तेरे जाने के बाद।।


लिबास-से ढोते रहे लाशे-बदन ता-ज़िन्दगी,
''शाद'' भी बस कयास है तेरे जाने के बाद।।


कॉपीराइट दुर्गेश कुमार "शाद"

मंगलवार, 23 दिसंबर 2014

यातायात - एक सोचनीय समस्या

हमारे देश की दो सबसे बड़ी समस्याएँ हैं – ‘चलता है का रवैया और मेरे अकेले के करने से क्या होगा की सोच’। अगर यातायात के नियमों के सन्दर्भ में बात की जाये तो लोग सोचते हैं, थोड़ा-सा गलत-दिशा में घुस जाएँ, थोड़ी-सी लाल बत्ती पार कर ली जाये इत्यादि। पर ये सोचिये कि डॉक्टर आपको थोड़ा सा बुखार आने पर कैन्सर की थोड़ी-सी दवाई दे, तो चलेगा? हज़ारों की संख्या वाली रेल लेकर अगर रेल चालक थोड़ी-सी लापरवाही कर दे, तो चलेगा? इससे हजारों लोगों की जान जोखिम में जा सकती है, ज़रा से के चक्कर में। छोटी-छोटी बातों का बहुत गहरा असर होता है। दूसरी समस्या है – ‘मेरे अकेले के करने से क्या होगा वाली सोच’। हर अच्छे कार्य की शुरुआत जानते हैं किस चीज़ से होती हैं – ‘मुझसे’। जब तक हम स्वयम्‌ ही नियमों का पालन नहीं करेंगे, किसी और से उसकी उम्मीद करना निरर्थक है और जब आप अपने बच्चों के साथ ड्राइव करते हैं, और आप स्वयम्‌ ही नियमों की धज्जियाँ उड़ाते हैं, तो आप अपने बच्चों के समक्ष क्या उदाहरण पेश कर रहे हैं। सोचा है कभी आपने, अक्सर बच्चे वही करते हैं, जो अपने आसपास के लोगों को, परिवारजन को करते देखते हैं।
एक अंग्रेज़ी कहावत है – Don’t learn safety by accident. सुरक्षा के महत्व को गलती होने के उपरांत ना सीखें, क्योंकि सुरक्षा का महत्व तो सदैव ही है।
निम्नलिखित पर ध्यान दें-
आश्चर्यजनक, किन्तु सत्य!!! Strange, but true!!!
1. सड़क हादसों का सबसे सबसे बडा कारण 'मानवीय गलती' है।
2. रोड् सेफटी की ग्लोबल स्टेटस रिपोर्ट के अनुसार भारत ने चीन के बाद पृथ्वी पर सबसे ज्यादा हादसों का रिकॉर्ड बनाया है। देखें –
3. सरकारी आँकड़ों के अनुसार भारत में वर्ष 2011 में 4,97,686 सड़क हादसे हुए एवं 1,42,485 लोग मारे गए। अब आप वास्तविकता में हुए हादसों का अनुमान लगा सकते हैं।
4. इंडियन नेशनल क्राईम रिपोर्ट के अनुसार भारत में रोजाना 14 लोग / घण्टे अपनी जान सड़क हादसों में गँवा बैठते हैं।
5. भारत में अभी भी 7-8 प्रतिशत लोग ही चार पहिया वाहनों में सीट बेल्ट का इस्तेमाल करते हैं; हेलमेट पहन के गाड़ी चलाने वालों का प्रतिशत इससे भी कम है।
6. भारत में हुए कुल सड़क हादसों में 55 प्रतिशत से ज्यादा हिस्सा केवल 5 राज्यों का है, जिनमें महाराष्ट्र, तमिलनाडु, मध्य प्रदेश, कर्नाटक एवं आंध्र प्रदेश है।
7. सरकारी आँकड़ों के मुताबिक सड़क हादसों में 15-20 प्रतिशत कारणों के पीछे वे बच्चे थे, जिनकी आयु 0-14 वर्ष की थी और जो लायसेंसधारी भी नहीं थे।
8. हमारे देश में मान्यता है कि यातायात पुलिस-बल सिर्फ चालान बनाने के लिए होते हैं, एवं सिर्फ चालान न बनने के डर से हमारे यहाँ यातायात के थोड़े बहुत नियम मानने के लिए बाध्य हैं। वैसे आदतन लोग यातायात पुलिसकर्मी की गैर-मौजूदगी में लाल बत्ती को पार करते ही हैं। वैसे पुलिस की ऐसी छवि बनाने के लिए वे स्वयं ही जिम्मेदार हैं। क्या डॉक्टर आपको पर्ची पर दवाएँ लिख कर नहीं देता, क्या स्वयं डॉक्टर आपको दवाएँ अपने सामने ही दिलवाता है, फिर भी आप घर जाकर भी दवाएँ खाते ही हैं ना, क्योंकि वह आपकी सेहत से जुड़ा है, तो यातायात के नियम भी तो आपकी और आपकी और सड़क पर चल रहे हर एक इंसान की जिन्दगी से जुड़े हुए हैं।
9. भारत में लोग अपनी लेन का मतलब ही नहीं जानते। हमारे यहाँ वैसे ही इंफ्रास्ट्रक्चर की कमी है. सड़क के मुकाबले वाहनों को घनत्व ज्यादा है. ज्यादातर सड़कों की हालत भी दयनीय ही कही जा सकती है।
10. काफी सारे देशों में एक से ज्यादा बार गलती होने पर उचित सजा के साथ-साथ लायसेंस के निरस्तीकरण तक की व्यवस्था है, जबकि हमारे यहाँ तो ये आलम है कि लायसेंस तक बगैर परीक्षा या ट्रायल के ही दिये जाते हैं। जबकि बहुत से देशों में लायसेंस के लिए आवेदन देने के लिए संबंधि‍त का लिखि‍त व मौखि‍क परीक्षा, मेडिकल परीक्षा जैसे कि वह मेडिकली फिट है या नहीं, एवं गाड़ी चलाने के लिए सक्षम है। मिर्गी या हिस्टीरिया होने की दशा में चालक का लायसेंस निरस्त कर दिया जाता है। स्कूली बस चलाने के लिए उसका पूर्व रिकॉर्ड, सैक्स अपराध रिकॉर्ड इत्यादि जाँचा जाता है। ट्रक एवं इसी तरह के भारी वाहन चलाने वालों को तो और उच्च स्तर पर एडवांस स्किल भी जाँचा जाता है कि वे ऐसे भारी वाहन चलाने के काबिल भी हैं या नहीं। दूसरी ओर हमारे देश में आर.टी.ओ. भ्रष्टाचार में आकंठ में डूबी हुई एक ऐसी गैर-जिम्मेदार संस्था है, जिसकी समाज के प्रति अतीव उत्तरदायित्व है। मैंने तो आज तक कहीं पर नहीं सुना कि हमारे देश में कभी किसी का ड्रायविंग लायसेंस निरस्त हुआ हो। लायसेंस प्रणाली में 1000 प्रतिशत सुधार की गुंजाइश है। दुनिया के अधि‍कांश देशों में ट्राफिक नियम बेहद सख्त हैं, एवं गलत चालन के लिए जुर्माने के साथ सजा का भी प्रावधान है। अमेरिका में तो राज्य सरकारों द्वारा बाकायदा आपके चालन के डाटा संचित किए जाते हैं एवं हर वर्ष उसे केन्द्र सरकार के साथ साझा भी किए जाते हैं। लायसेंस निरस्त किए जाने की दशा में गाड़ी चालाने को अपराध की श्रेणी में रखकर कार्यवाही की जाती है। इसके विपरीत हमारे देश में इस तरह का डाटा रखने की सोच दूर-दूर तक नहीं है। स्पेन, स्वीडन, हांगकांग इत्यादि देशों में ड्रायविंग लायसेंस का नंबर उसके नागरिकता क्रमांक जैसा होता है। ये हमारे देश का दुर्भाग्य है, कि प्रशासन कभी भी नियमों का पालन करवाने के प्रति संजीदा नहीं रहा। और हमारे यहाँ आम आदमी को कानून का उपहास उड़ाने की आदत पड़ चुकी है। जरा सोचिए आप स्वयं भी कभी ना कभी पब्लिक ट्रांसपोर्ट का इस्तेमाल करते ही हैं। आप चाहेंगे कि जिस बस या ट्रेन में आप सफर कर रहे हों, उसका चालक आपराधि‍क रिकॉर्ड वाला हो और उसे चालन के नियम ही ठीक से पता नहीं हो या फिर नियम तोडना उसकी आदत में शुमार हो। अपने देश के कानून की तो यह स्थिति है कि सन् 2002 में सड़क पर सो रहे एक व्यक्ति‍ को नशे की हालत में मार डालने वाला खुलेआम घूम रहा है और अपने पैसों के दम पर कानून को ठेंगा दिखा रहा है। कानून भले ही उसे अब तक सजा ना दे पाया हो, पर क्या समाज उसे सजा नहीं दे सकता। क्यों लोग उसकी फिल्में देखते हैं और सर आँखों पर बैठाते हैं। क्या हमारे देश की सारी संबेदनाएँ मर चुकी हैं।
11. अनियंत्रि‍त गति में गाड़ी चलाते हुए हादसे होना हमारे यहाँ आम बात है। गति को मापने और उसके लिए आरोप साबित करने के लिए हमारे देश के कई बडे शहरों में व्यवस्था ही नहीं है। बहुत से देशों में गति को मापने के लिए राडार डिटेक्टर का प्रयोग किया जाता है। अधि‍क जानकारी के लिए पढ़ें – http://en.wikipedia.org/wiki/Radar_detector

ये दुर्भाग्य की बात है कि लोग यातायात से संबंधि‍त गलतियाँ अक्सर करते हैं और इसका एक और पहलू है कि जानकारी होने के बावजूद। उनमें लोगों के शि‍क्षि‍त-अशि‍क्षि‍त होने का कोई संबंध नहीं है क्योंकि ऐसा सभी वर्गों के लोग करते आए हैं। मैं नहीं समझता कि ये किसी को पता नहीं होगा फिर भी सामान्य गलतियाँ जिसके लोग आदी हो चुके हैं –
1. हेलमेट पहने बगैर गाड़ी चलाना।
2. सीट बेल्ट नहीं पहनना। दुर्घटनाएँ कभी पूर्व संकेत देकर या कहकर नहीं आती बस वे हो जाती हैं। हेलमेट ना पहनना या सीट बेल्ट ना बाँधना सिर्फ इसलिए कि अभी कौन-सी दुर्घटना होने वाली है। और इसे मनवाना सरकार के हाथ में कतई नहीं है। और ना ही सरकार को इसके लिए बाध्य होना चाहिए।
3. गलत दिशा में गाड़ी चलाना और वह ही इस आत्मविश्वास के साथ कि वे एकदम सही कार्य कर रहे हैं। जितना पेट्रोल या समय आप बचाना चाह रहे हैं क्या वह आपकी या अन्य किसी की जान से ज्यादा कीमती है। न्यूजीलैंड में गलत दिशा में गाड़ी चलाने पर 5 साल की जेल एवं 1000 डॉलर जुर्माने का प्रावधान है।
4. गलत दिशा से ओवरटेक करना। लोग अक्सर बाएँ हाथ की ओर से ओवरटेक करते हैं। हमेशा दायीं ओर से ओवरटेक करें और ओवरटेक करते समय हॉर्न अवश्य दें।
5. मोबाईल पर बात करते हुए गाड़ी चलाना फैशन की तरह बन गया है। मोबाईल पर बात करने से आपका चेतन मन वार्तालाप में लग जाता है और आपका वाहन सिर्फ अवचेतन मन के भरोसे होता है। मोबाईल पर बात करते हुए सड़क हादसे होने का प्रतिशत बहुत ज्यादा है। यह ठीक वैसा ही है जैसे टीवी पर अपना पसंदीदा कार्यक्रम देखते हुए खाना खाना। जिसमें आपका सारा ध्यान आपके सीरियल में लगा होता है और आप क्या और कितना खा जाते हैं वह आपको पता ही नहीं होता है। बहुत से देशों में मोबाईल पर बात करना, मैसेज या ई-मेल करने को शराब पीकर गाड़ी चलाने या उससे भी गंभीर अपराध की श्रेणी में रखा जाता है। मोबाईल पर बात करने हुए गाड़ी चलाने से ‘रिस्पांस टाईम’ शराब पीकर गाड़ी चलाने से भी ज्यादा हो जाता है।
6. शराब पीकर गाड़ी चलाने वाले सड़क हादसों का एक बडा हिस्सा है। आमतौर पर शराब पीने से पीने वाले में एक अजीब सा आत्मविश्वास आ जाता है कि वह एकदम ठीक है और अच्छी तरह से गाड़ी को नियंत्रित कर सकता है बल्कि  होता इसके एकदम विपरीत ही है। यह ध्यान दें कि ‘एक अति आत्मविश्वासी नाविक की अक्सर नाव डुबो देता है। न्यू एरिजोना में यदि आपके शरीर में अल्कोहल की मात्रा 0.08 प्रतिशत या अधि‍क पाई जाती है तो आपको कानूनन अपनी गाड़ी में इग्निशन इंटरलॉक लगवाना पडता है। इसे लगाने पर अमुक व्यक्ति‍ को हर बार गाड़ी चालू करने के लिए उसे हर बार सॉंसों का नमूना देना पडता है एवं अल्कोहल का प्रतिशत सीमा के उपर मिलने पर गाड़ी चालू ही नहीं हो सकती। वहीं दूसरी ओर 20 प्रतिशत या अधि‍क मात्रा पाए जाने पर अपरिहार्य रूप से कम से कम 45 दिन की कैद  होती है जिसे जज चाहे तो भी नहीं बदल सकता। फलोरिडा में शरीर में 2 प्रतिशत शराब पाए जाने पर 6 महीने की सज़ा एवं 1 साल तक लायसेंस निरस्त कर दिया जाता है। जॉर्जिया, न्यूजर्सी, ओरेगॉन, टेक्सास, न्यूयॉर्क, वर्जिनिया, जापान इत्यादि में भी इसी तरह के काफ़ी सख़्त नियम हैं। यूनाईटेड स्टेट में शराब पीकर गाड़ी चलाने पर उम्रक़ैद तक का प्रावधान है।
7. अपनी गाड़ी चाहे वह दुपहिया हो या चार पहिया, उसके साईट ग्लास अवश्य लगवाएँ। 90 प्रतिशत से ज़्यादा लोग इसे अपने दुपहिया वाहन में नहीं लगवाते, सिर्फ इसलिए कि गाड़ी की सुंदरता में उन्हें बाधा पहुँचती है। साईट ग्लास आपकी सहूलियत के लिए है एवं अत्यंत आवश्यक है, जिससे आप आजू-बाजू से आ रही गाड़ियों का एवं दूरी का अंदाज़ा लगा सकते हैं।
8. लोग अक्सर आगे और जल्दी निकलने की चाह में अपनी लेन छोड़ के दूसरी लेन में घुस जाते हैं, जिसकी वजह से वे उस लेन आने वाले वाहन के सामने आकर दुर्घटना को निमंत्रित करते हैं। यह आज तक मुझे समझ में नहीं आता कि सबको इतनी जल्दी ‘जाना’ कहाँ पर है, जो कि जान से भी ज़्यादा क़ीमती है।
9. बिना संकेतक दिए गाड़ी को मोड़ लेना आजकल लोकप्रिय शगल है। उपर से चालक ये उम्मीद कि यह पीछे से आ रहे वाहन की जवाबदारी है कि कौन-कब-कैसे मुड़ रहा है।
10. मोड़ पर वाहन को अधि‍क गति में मोड़ लेने पर वाहन के फिसलने की संभावना बहुत ज़्यादा होती है। गति ज़्यादा होने पर सामने से आने वाले वाहन से भि‍ड़ने की संभावना बहुत ज़्यादा होती है। यह आश्चर्य की बात है कि 95 प्रतिशत लोग मोड़ गलतत दिशा से मुड़ते हैं। ये कहना मुश्किचल है कि उन्हें सही दिशा का ज्ञान होता है या नहीं। और उससे भी ज़्यादा आश्चर्य कि ख़ुद ग़लत दिशा में होने के बावजूद सामने से आ रहे वाहन चालक को घूरकर देखते हैं।
11. हमारे देश में एक तो वैसे ही पैदल लोगों के लिए अलग से कोई व्यवस्था नहीं होती और तो और बड़े चौराहों पर भी पैदल निकलने वाले लोगों के लिए कोई संकेत तक नहीं होता। लोग अपने विवेकानुसार निकल ही जाते हैं। जहाँ कहीं ज़ेब्रा क्रॉसिंग है भी तो वाहन चालक उससे कहीं आगे निकल कर वाहन रोकते हैं, ताकि वे सिग्नल होने पर तुरंत ‘निकल’ सकें।
मेरे विचार से क़ानून का पालन करवाने की जितनी जि़म्मेदारी प्रशासन की है, उससे कहीं अधि‍क स्वयं की। पर हाँ, प्रशासन भी इसके लिए कटिबद्ध होना चाहिए। लोगों को किए की सज़ा ना मिलना, उन चीज़ों को बढ़ावा देना ही है। और ये बात सिर्फ यातायात के संदर्भ में ही सही नहीं है, वे हर चीज़ पर लागू होती हैं।
देशभक्ति की सिर्फ बातें करने से कुछ नहीं होगा, चीज़ों को अमल में लाने पर ही सुधार संभव है।

शनिवार, 8 नवंबर 2014

ग़ज़ल

 
इक आह चली, चलती ही रही,
जिस्म में रूह मचलती ही रही.
 
ख़ाक़ हो जायेंगे सारे पैक़र,
मौत ता-जिंदगी छलती ही रही.
 
हुआ ना रुख़ इस ओर फिर भी,
कमी इक उम्र खलती ही रही.
 
टूटने का इल्म तो था लहरों को मगर,
आग़ोशे-दरिया में पलती ही रही.
 
किसी के जाने से ज़िन्दगी नहीं रूकती,
जला जो परवाना, शमा जलती ही रही.
 
उनकी अक़ीदत तो दरिया से ''शाद'',
मौजें, जबीं साहिल पे मलती ही रही.
 
दुर्गेश कुमार "शाद"

बुधवार, 3 सितंबर 2014

कविता



देखो गर मिल सकें तो,

कुछ अल्फ़ाज़ मेरे,

वहीं-कहीं ज़मीं पर गिरे होंगे,

जो तुमने अपने कानों में नहीं पहने;

अब तो शायद वे धागों में भी ना पिरोये जा सकेंगे,

क्योंकि धागों में भी गाँठ पड़ गई होंगी।।।



कॉपीराइट @दुर्गेश कुमार ''शाद''

मंगलवार, 25 जून 2013

जब पसीना गुलाब था.

जब पसीना गुलाब था ........


"अब इत्र भी मलो तो खुशबू नही आती,


वो दिन हवा हुए, जब पसीना गुलाब था।"

आज के परिवेश, विशेषतः साहित्यिक परिवेश में उक्त पंक्तियाँ कितनी सटीक बैठती हैं, जबकि आज की घोर व्यावसायिक मानसिकता ने साहित्यिक अवधारणा या साहित्यिक मूल्यों को हाशिये पर ला खड़ा किया है। वे दिन शायद हवा हो चुके हैं, जब किताबें या पत्रिकाएँ सामाजिक-मूल्यों की पौध तैयार करती थी। हममें अच्छी सोच एवम संस्कार के बीजों के संचार के लिए एक 'प्लेटफार्म' तैयार करती थी। वे किताबे, जो सर्वजन हिताय, सामाजिक-मूल्यों से सरोकार रखती थी और ऐसी उच्च मानसिक भूमि तैयार करती थी, जिस पर मानवता व मानवीय-संवेदनाओ की उर्वर फसल लहलहाती थी।

आज बाज़ार में उपलब्ध किताबों या पत्रिकाओं पर नज़र डालें, तो हम ऐसी किताबें ही पाते हैं, जिनके मुखप्रष्ठ पर अर्धनग्न बालाएँ अथवा सिनेमा, खेल या टेलीविज़न-जगत से ताल्लुक़ रखने वाली हस्तियाँ ही होती हैं। क्यों हमारी किताबों के मुख पृष्ट पर -स्वामी रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, आचार्य रजनीश (ओशो), महात्मा गाँधी, मुंशी, प्रेमचंद शरतचंद्र चट्टोपाध्याय, रविंद्रनाथ बंकिमचंद, सुभाषचंद्र बोस, भगत सिंह भगवान महावीर, नानक देव, गौतम बुद्ध, मिर्ज़ा ग़ालिब सरीखी हजारों विभूतियो को स्थान नहीं मिलता?  व्यक्तिव में इनकी चरण-धूलि के बराबर भी ना होने के बावजूद आज हम उन्हें ही देख-सुन-पढ़ रहे हैं!

प्रश्न बेहद संगीन है, क्योकि हमारी आने वाली पीढ़ी की मानसिकता इन्ही पर अवलम्बित होगी। क्या उपरोक्त हस्तियों के समाज के प्रति योगदान को विस्मृत किया जा सकता है? नही। ये वही व्यक्ति हैं, जिन पर देश को सच्चा नाज़ है, जिनकी बदौलत हम विश्व का (अध्यात्मिक) गुरु होने का दंभ भरते रहते हैं। निःसंदेह, हमारी संस्कृति औरों से बेहतर और उच्च हैं, हमारे यहाँ आज भी मानवीय संवेदनाओं का महत्व है, मगर ऐसे परिवेश में हमें भी यंत्रवत होने में देर नहीं लगेगी।

आज की नौजवान पीढ़ी यही जानने और सोचने में लगी रहती है की अमिताभ बच्चन के ऑपरेशन का क्या हो रहा है? वे कौन से ब्रांड की घडी पहनते हैं? करीना कौन सा परफ्यूम लगाती है? जॉन को कौन सी बाइक पसंद है?   आमिर खान या शाहरुख़ खान का हेयर ड्रेसर कौन है? तेंदुलकर को कौन सा पेय पदार्थ पसंद है या सानिया  का ड्रेस कोड क्या है इत्यादि। वे क्यों नहीं जानना चाहते की नरेन्द्र को 'स्वामी विवेकानंद' या सिद्धार्थ क्यों 'गौतम बुद्ध' कहलाये? सुकरात को क्यों ज़हर दे दिया गया? महात्मा गाँधी ने सत्य और अहिंसा के क्या प्रयोग किये? सवाल ये है कि कौन से प्रश्न हमारे सामाजिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों से सरोकार रखते हैं? किन प्रश्नों का सामाजिक व नैतिक महत्व है? निःसंदेह उत्तरलिखित प्रश्नों का ही महत्व अधिक एवं सार्थक है।

और ऐसा भी नहीं है कि अमिताभ, तेंदुलकर, आमिर या सानिया का कोई सामाजिक महत्त्व नहीं है। मगर आदर्श  रुप में इन सबका महत्त्व एवम दायरा अत्यंत सीमित है। उपरोक्त हस्तियाँ किसी क्षेत्र-विशेष की हैं, जिनका सामाजिक-हित में प्रभाव नगण्य है (हाँ दुष्प्रभाव ज़रूर हो सकता है!). अब सवाल यह है कि यह परिवर्तन आया कैसे ? स्वाभाविक रूप से हर परिवर्तन एक दीर्घकालिक प्रक्रिया है। ये समय की क्रमिकता के हिसाब से आये हैं। निम्न कारणों पर मंथन करें -
१. विशुद्ध व्यावसायिक सोच:- लेखक या संपादक की किताबें, समाज पर क्या प्रभाव डालेंगी के बजाय, वह कितना पैसा कमाकर देगी वाली मानसिकता।
२. मीडिया की भूमिका:- इलेक्ट्रॉनिक व प्रिंट मीडिया द्वारा केवल फ़िल्मी, खेल या टेलीविज़न जगत की हस्तियों को ही 'हाईलाइट' करना।
३. पश्चिम के भोगवादी हमले:- भौतिक अथवा एन्द्रिय-सुख को तरजीह देना।
४. माता-पिता-गुरु की भूमिका:- इनकी भूमिका तब नकारात्मक ही कहलायेगी, जब वे बच्चों को बचपन से ही अच्छे साहित्य की ओर उन्मुख न कर सकें एवम उन्हें उपयुक्त वातावरण ना मुहैया करवा सकें।
५. उत्तरदायी लेखकों का पलायन:- आजीविका के लिए, ऐसे लेखको का व्यावसायिक होना, जो समाज को बहुत कुछ सार्थक दे सकते हैं।
६. सरकार की ओर से अपेक्षित सहयोग ना मिलना।
७. लोगो के लिए प्रेरक साहित्यिक वातावरण ना तैयार कर पाना।

उपरोक्त प्रश्नों का उत्तर हम सभी के पास है। एक दुकान पर ज़हर भी मिलता है और दवाई भी। फैसला हमारा अपना है। चुनना हमें ही है कि हम स्वयं एवं अपने राष्ट्र का निर्माण कैसे करना चाहते हैं। फिर भी आज साहित्य को एक सामूहिक प्रयास एवं इसके पुनरुत्थान की प्रतिबद्धिता की दरकार है।

दुर्गेश कुमार ''शाद''  

मंगलवार, 21 मई 2013

ग़ज़ल

तू मुझे कभी ना समझा था .....

तू मुझे कभी ना समझा था,
मै बगैर तेरे अधूरा था।।

मैंने तेरी आँखों में जो पढ़ा था,
वो प्यार नहीं और क्या था।।

तूने तो साथ निभाया हरदम,
एक मै ही ना कुछ दे सका था।।

अजीब गुदगुदी सी हुई थी,
जब किसी ने तेरा नाम लिया था।।

तुझे पाने की ख्वाहिश जैसे,
एक नामुमकिन सा सपना था।।

आज फरामोश कर दिया उसने,
बरसों तक दिल में जो रहा था।।

देखा तो दोनों हाथ खाली थे,
जब इस दुनिया से मैं चला था।।

खुशियों ने किया गुरेज़ मुझसे,
पर दुःख तो मेरा 'अपना' था।।

कॉपीराइट @दुर्गेश कुमार ''शाद''